सोमवार, 13 जून 2011

देख रहा है दरिया भी हैरानी से

देख रहा है दरिया भी हैरानी से
मैं ने कैसे पार किया आसानी से

नदी किनारे पहरों बैठा रहता हूँ
क्या रिश्ता है मेरा बहते पानी से

अब जंगल में चैन से सोया करता हूँ
डर लगता था बचपन में वीरानी से

हर कमरे से धुप,हवा की यारी थी
घर का नक्शा बिगड़ा है नादानी से

दिल पागल है रोज़ पशेमाँ होता है
फिर भी बाज़ नहीं आता मनमानी से

रविवार, 22 मई 2011

हर घर में कोई तहखाना होता है

हर घर में कोई तहखाना होता है
तहखाने में इक अफ़साना होता है

किसी पुरानी अलमारी के खानों में
यादों का अनमोल खज़ाना होता है

रात गए अक्सर दिल के वीराने में
इक साये का आना-जाना होता है

बढ़ती जाती है बेचैनी नाख़ून की
जैसे जैसे ज़ख्म पुराना होता है

दिल रोता है, चेहरा हँसता रहता है
कैसा कैसा फ़र्ज़ निभाना होता है

ज़िंदा रहने की खातिर इन आँखों में
कोई न कोई ख़्वाब सजाना होता है

जंगल से बस्ती में आकर भेद खुला
दिल के अंदर ही वीराना होता है

क्यूँ लोगों को याद नहीं रहता 'आलम'
इस दुनिया से वापस जाना होता है
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शनिवार, 30 अप्रैल 2011

एक अजब सी दुनिया देखा करता था ....

ग़ज़ल
आलम खुरशीद

एक अजब सी दुनिया देखा करता था
दिन में भी मैं सपना देखा करता था

एक ख्यालाबाद था मेरे दिल में भी
खुद को मैं शहज़ादा देखा करता था

सब्ज़ पारी का उड़नखटोला हर लम्हे
अपनी जानिब आता देखा करता था

उड़ जाता था रूप बदल कर चिड़ियों के
जंगल , सेहरा , दरिया देखा करता था

हीरे जैसा लगता था इक इक कंकर
हर मिटटी में सोना देखा करता था

कोई नहीं था प्यासा रेगिस्तानों में
हर सेहरा में दरिया में देखा करता था

हर जानिब हरियाली थी,खुशहाली थी
हर मिटटी में सोना देखा करता था

बचपन के दिन कितने अच्छे होते हैं
सब कुछ ही मैं अच्छा देखा करता था

आँख खुली तो सारे मंजर गायब हैं
बंद आँखों से क्या क्या देखा करता था